कविता संग्रह >> दाना चुगते मुरगे दाना चुगते मुरगेयू. के. एस. चौहान
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इस संग्रह को पढ़ते समय आज का संसार आदमियों की जगह कुत्ते, सियारों, बंदरों, मुरगों जैसे पशु-पक्षियों से भरे एक जंगल की तरह दिखाई पड़ता है, जिन्हें सिर्फ प्रतीक न समझकर यदि एक नए ‘पंचतंत्र’ की तरह पढ़ें तो एक प्रकार के नए सत्य का साक्षात्कार होगा।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दाने कम होते देखकर
और दानों की मांग की मुरगों ने
पेट भरा था उनका
फिर भी दानों का लालच विवश किए था
यह जानकार कि शायद और दाने न मिल सकें सब चुग लेना चाहते थे अधिकाधिक बचे
खुचे दाने।
दानों की कमी संघर्ष का कारण बनने लगी
कुछ मुरगों के सामने बचे थे बस खराब
ही दाने।
अच्छे दानों पर एकाधिकार जमाने के लिए
चोंचों से वार होने लगे
एक दूसरे के खून के प्यासे हो चले थे मुरगे
मुझे याद आई लखनऊ, पटना, दिल्ली की।
कुछ मुरगे होशियार निकले
दाने चुगने का मजा ले चुके थे वे
समझ चुके थे कि दाने तो फसल से ही
मिलते हैं। फिर फसल ही खाने का मजा क्यों न लिया जाए
ऐसे मुरगे खेतों की तरफ बढ़ चुके थे
फसलों को खाने में रम चुके थे।
उन्हें इसकी चिंता भी नहीं थी
कि अब उनके साथियों को दाने कैसे मिलेंगे
और अंततोगत्वा उन्हें भी फसलें कैसे मिलेंगी
फसलें खत्म होती जा रही थीं।
मुरगे फिर लड़ने के लिए तैयार हो रहे थे
मुझे अपने देश के भविष्य की चिंता हो
रही थी।
और दानों की मांग की मुरगों ने
पेट भरा था उनका
फिर भी दानों का लालच विवश किए था
यह जानकार कि शायद और दाने न मिल सकें सब चुग लेना चाहते थे अधिकाधिक बचे
खुचे दाने।
दानों की कमी संघर्ष का कारण बनने लगी
कुछ मुरगों के सामने बचे थे बस खराब
ही दाने।
अच्छे दानों पर एकाधिकार जमाने के लिए
चोंचों से वार होने लगे
एक दूसरे के खून के प्यासे हो चले थे मुरगे
मुझे याद आई लखनऊ, पटना, दिल्ली की।
कुछ मुरगे होशियार निकले
दाने चुगने का मजा ले चुके थे वे
समझ चुके थे कि दाने तो फसल से ही
मिलते हैं। फिर फसल ही खाने का मजा क्यों न लिया जाए
ऐसे मुरगे खेतों की तरफ बढ़ चुके थे
फसलों को खाने में रम चुके थे।
उन्हें इसकी चिंता भी नहीं थी
कि अब उनके साथियों को दाने कैसे मिलेंगे
और अंततोगत्वा उन्हें भी फसलें कैसे मिलेंगी
फसलें खत्म होती जा रही थीं।
मुरगे फिर लड़ने के लिए तैयार हो रहे थे
मुझे अपने देश के भविष्य की चिंता हो
रही थी।
इसी संग्रह से
परिचय के दो शब्द
बंधुवर यू.के.एस. चौहान कवि-जनोचित नाम न होने के बावजूद कोई नौसिखुए कवि
नहीं है। न किसी परिचय के मोहताज और न ही किसी की सनद के तलबगार। तीन वर्ष
पहले अपने आरंभिक गीतों का एक संकलन ‘गांठ में लूं बांध थोड़ी
चाँदनी’ प्रकाशित कर चुके हैं। फिर भी कवियों की जमात में अपने
आपको कुछ-कुछ अजनबी सा महसूस करते हैं तो शायद इसलिए कि उन्हें एक लंबे
समय तक अपने वतन से दूर सुदूर दक्षिण में रहना पड़ा। लिहाजा ये दो शब्द
कवि को आश्वस्त करने के लिए।
वैसे, कवि का वास्तविक परिचय उसकी कविता ही है और कहना न होगा कि ‘दाना चुगते मुरगे’ काव्य-संकलन की अधिकांश कविताओं से एक आत्मचेतस् और आत्मविश्वासी कवि का स्वर मुखरित होता है ! कवि को ‘‘वह सब जानना-कहना है/जो आवरण के पीछे छिपा/अनुभूत तथ्य है/और जीवन का सत्य होने के साथ-साथ/हमारे भीतर छिपे विद्रोह का कथ्य है।’’ (कविता का कथ्य)
कविता कवि के लिए वस्तुत: एक हथियार है। ‘आलस भरे दिन’ शीर्षक एक अन्य कविता में वह साफ-साफ कहता है कि ‘मेरी कविता ही तो मेरे पास/जो तुम्हारे औरों के, मेरे खुद के/स्वार्थ से लड़ सकती है/वही तो है जो पैदा होती है/हर स्वार्थ को नंगा करती हुई।’’
इस प्रसंग में सबसे महत्त्वपूर्ण पद है, ‘मेरे खुद के’। स्वार्थ के विरुद्ध संघर्ष में यह आत्मचेतस् कवि अपने आपको भी बख्शने के लिए तैयार नहीं है।
विशेष बात यह है कि इस बीच कवि को अचानक एक दिन ‘अँधेरे में’ आले में पड़ा मुक्तिबोध का लिफाफा मिल गया। उसमें से निकली ‘शीर्षोन्नत जनता’ फिर निकला ‘रक्तालोक स्नात पुरुष’ और अंत में एक अतिशय परिचित शिशु जैसा एक ‘समूचा ज्योतिष्मान् भविष्य।’ तब से ‘सुनहरी भोर का यह रश्मि-पुंज’ कवि का एकदम अपना हो गया। संग्रह की अनेक कविताएँ भविष्य के इसी आलोक में रची हुई प्रतीत होती हैं।
‘दाना चुगते मुरगे’ शीर्षक संग्रह को पढ़ते समय आज का संसार आदमियों की जगह कुत्ते, सियारों, बंदरों, सांपों, मुरगों जैसे पशु-पक्षियों से भरे एक जंगल की तरह दिखाई पड़ता है, जिन्हें सिर्फ प्रतीक न समझकर यदि एक नए ‘पंचतंत्र’ की तरह पढ़ें तो एक प्रकार के नए सत्य का साक्षात्कार होगा।
इस संसार में ‘रमुआ की धोती’ जैसा मर्म की गहराई तक छू जानेवाला शब्द-चित्र भी देखने को मिलता है और ‘दुःख’ जैसी मर्मस्पर्शी प्रगीतात्मक कविता भी !
फिलहाल संकेत के लिए इतना ही पर्याप्त है। इन थोड़े से शब्दों के साथ काव्य-संग्रह का स्वागत और कवि को शुभकामनाएँ !
वैसे, कवि का वास्तविक परिचय उसकी कविता ही है और कहना न होगा कि ‘दाना चुगते मुरगे’ काव्य-संकलन की अधिकांश कविताओं से एक आत्मचेतस् और आत्मविश्वासी कवि का स्वर मुखरित होता है ! कवि को ‘‘वह सब जानना-कहना है/जो आवरण के पीछे छिपा/अनुभूत तथ्य है/और जीवन का सत्य होने के साथ-साथ/हमारे भीतर छिपे विद्रोह का कथ्य है।’’ (कविता का कथ्य)
कविता कवि के लिए वस्तुत: एक हथियार है। ‘आलस भरे दिन’ शीर्षक एक अन्य कविता में वह साफ-साफ कहता है कि ‘मेरी कविता ही तो मेरे पास/जो तुम्हारे औरों के, मेरे खुद के/स्वार्थ से लड़ सकती है/वही तो है जो पैदा होती है/हर स्वार्थ को नंगा करती हुई।’’
इस प्रसंग में सबसे महत्त्वपूर्ण पद है, ‘मेरे खुद के’। स्वार्थ के विरुद्ध संघर्ष में यह आत्मचेतस् कवि अपने आपको भी बख्शने के लिए तैयार नहीं है।
विशेष बात यह है कि इस बीच कवि को अचानक एक दिन ‘अँधेरे में’ आले में पड़ा मुक्तिबोध का लिफाफा मिल गया। उसमें से निकली ‘शीर्षोन्नत जनता’ फिर निकला ‘रक्तालोक स्नात पुरुष’ और अंत में एक अतिशय परिचित शिशु जैसा एक ‘समूचा ज्योतिष्मान् भविष्य।’ तब से ‘सुनहरी भोर का यह रश्मि-पुंज’ कवि का एकदम अपना हो गया। संग्रह की अनेक कविताएँ भविष्य के इसी आलोक में रची हुई प्रतीत होती हैं।
‘दाना चुगते मुरगे’ शीर्षक संग्रह को पढ़ते समय आज का संसार आदमियों की जगह कुत्ते, सियारों, बंदरों, सांपों, मुरगों जैसे पशु-पक्षियों से भरे एक जंगल की तरह दिखाई पड़ता है, जिन्हें सिर्फ प्रतीक न समझकर यदि एक नए ‘पंचतंत्र’ की तरह पढ़ें तो एक प्रकार के नए सत्य का साक्षात्कार होगा।
इस संसार में ‘रमुआ की धोती’ जैसा मर्म की गहराई तक छू जानेवाला शब्द-चित्र भी देखने को मिलता है और ‘दुःख’ जैसी मर्मस्पर्शी प्रगीतात्मक कविता भी !
फिलहाल संकेत के लिए इतना ही पर्याप्त है। इन थोड़े से शब्दों के साथ काव्य-संग्रह का स्वागत और कवि को शुभकामनाएँ !
नामवर सिंह
आभार
इस कविता-संग्रह की कविताओं को क्रमबद्ध कर सुव्यवस्थित रूप से टंकित करने
में मेरे सहयोगियों सर्वश्री आलोक कुमार तथा अमर कुमार सिंह ने अथक
परिश्रम किया है। इन्हें पढ़कर आलोचक व कविगण अधिक दोष न निकालें तथा
पाठकों में अरुचि न हो, इसके लिए ‘कल के लिए’ के
संपादक डॉ. जय नारायण तथा कथाकार एवं कवि-मित्र श्री गंभीर सिंह पालनी ने
अपना अमूल्य योगदान दिया है। कविताई के लिए पिताश्री ब्रह्मा सिंह, जो
स्वयं कवि हैं, की प्रेरणा बड़े भाई एवं चर्चित नव-गीतकार श्री शैलेन्द्र
सिंह चौहान का आशीर्वाद पत्नी नंदिता चौहान की विघ्न न डालने की सहिष्णुता
तथा बच्चों का प्रेम, सभी कुछ सदैव सहायक रहा है। संग्रह के प्रकाशन हेतु
वरिष्ठ आलोचक व साहित्यकार डॉ. नामवर सिंह, प्रतिष्ठित कवि श्री नरेश
सक्सेना, कथाकार-संपादक मित्र श्री अखिलेश तथा सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती
चित्रा मुदगल द्वारा दी गई प्रेरणा वरदान सिद्ध हुई है। इन सभी का
बहुत-बहुत आभार।
यू.के.एस. चौहान
इस कविता-संग्रह की कविताओं में व्यक्त विचार मेरे अपने हैं, न कि सरकार
के
प्रत्यर्पण
लगभग बीस बरस से
जिनके दिए स्नेह
जिनके बताए नई कविता के मर्म
जिनकी रेखांकित संवेदनाओं से प्रेरित हो
अनेकों बोझ ढोने के लिए
मजबूत होता रहा हूँ
उन्हीं डॉ.जगदीश गुप्त को प्रत्यर्पित है
यह अर्जित जमा-पूँजी।
यथार्थ और तार्किकता की
पथरीली जमीन पर चलते हुए भी
‘युग्म’ जैसी युक्ति से
नई कविता में भरी थी जो रसात्मकता
उसी आशीष की थाती सँभाले
प्रत्यर्पित करता हूँ डॉ. गुप्त को
अपने कोमल धरातल का समस्त प्रेमादर।
जिनके दिए स्नेह
जिनके बताए नई कविता के मर्म
जिनकी रेखांकित संवेदनाओं से प्रेरित हो
अनेकों बोझ ढोने के लिए
मजबूत होता रहा हूँ
उन्हीं डॉ.जगदीश गुप्त को प्रत्यर्पित है
यह अर्जित जमा-पूँजी।
यथार्थ और तार्किकता की
पथरीली जमीन पर चलते हुए भी
‘युग्म’ जैसी युक्ति से
नई कविता में भरी थी जो रसात्मकता
उसी आशीष की थाती सँभाले
प्रत्यर्पित करता हूँ डॉ. गुप्त को
अपने कोमल धरातल का समस्त प्रेमादर।
एक आलोचनात्मक टिप्पणी
गद्य के नित नए रूपों के बावजूद कविता आज भी सर्वाधिक लिखी जा रही है।
कहाँ से आ रही हैं भावनाएँ और कहाँ से आ रहा है इतना धैर्य कि परास्त नहीं
हो रहे हैं कवि और थक-हारकर बैठ नहीं रही है कविता। यह रोचक शोध का विषय
हो सकता है कि दृश्य मीडिया द्वारा संवेदनाओं पर निरंतर किए जा रहे आघातों
के बाद भी कविता का बिरवा क्यों नहीं सूख रहा है।
भवानी भाई के शब्दों में-कविता भी किसिम-किसिम की आ रही है। अधिकांश बड़ी कविता (जो बड़े कवियों द्वारा बड़े आलोचकों के लिए रची और उन्हें अर्पित की जा रही हैं) आज सामान्य पढ़े-लिखे पाठकों से दूर है। अब कविता का ‘सही उत्तराधिकारी पाठक और रसज्ञ’ किसे माना जाए, यह फिर एक नए शोध और बहस की माँग करनेवाला विषय है। क्या हो उस पाठक की न्यूनतम योग्यता ? किस पाठक को संबोधित कर कवि लिखे और किसे इस अधिकार से वंचित किया जाए ? उमेश कुमार सिंहचौहान ने जब अपने इस संग्रह पर कुछ लिखने का आग्रह किया तो मेरे कवि मन को अकसर उद्वेलित करनेवाले वे ढेरों प्रश्न जीवित हो उठे, जिन्हें पिछले कुछ सालों से मैंने प्रतीक्षा-सूची में डाल रखा था।
आज भी यह प्रश्न उतना ही गंभीर और सामयिक है कि समकालीन कविता की मुख्यधारा में किस प्रकार की कविता को शामिल किया जाए ? नई कविता के दौर में तो मुक्तिबोध भी कवि थे और नरेश मेहता भी। गिरिजा कुमार माथुर भी कवि थे और रघुवीर सहाय भी।
आज रागात्मकता से परिपूर्ण, सीधी-सच्ची कविताएँ लिखना और उन्हें बतौर कवि सामने लाना बड़े कलेजे का काम है। चूंकि यह काम उमेश ने किया है, इसलिए वे साधुवाद के पात्र हैं। इससे पहले उनके रुमानी गीतों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ था, पर उनकी कविताओं का यह पहला संग्रह है। इस संग्रह में ‘आलोचक’ शीर्षक कविता में उन्होंने उसी पीड़ा की ओर इशारा किया है जिसका संकेत मैं ऊपर कर चुका हूँ। यह कविता उन तमाम कवियों को राहत और शक्ति देगी, जिन पर आलोचक अपनी उपेक्षा का चाबुक चलाते रहते हैं।
इस संग्रह में कई प्रकार की कविताएं है। ‘नव-निर्माण’, ‘केंचुल’, जैसी विश्लेषणात्मक कविताएँ कवि के भीतरी संसार से हमारा परिचय कराती हैं तो गांधीजी के बंदर, इक्कीसवीं सदी का भारत, ‘गांधी जयंती’, ‘नगवा नाला’ तथा ‘युद्ध और बच्चे’ जैसी कविताएँ कवि के सामयिक सरोकारों और राजनीतिक विद्रूप के प्रति उद्वेलन को प्रामाणिकता से अभिव्यक्त करती है। संग्रह में कुछ क्षणिकाएँ भी प्रभावित करती है। उमेश का मूल स्वर रूमानी रहा है और इस संग्रह में भी ‘शाश्वत संबंध’ ‘सुधियों के बीज’ ‘याद है तुम्हें ?’ जैसी कविताएँ निष्कवच होते कवि के आत्मीय संसार से हमारी भेंट कराती हैं। यहाँ रूमानियत को लेकर कुंठा नहीं है। सहज और स्वस्थ अभिव्यक्ति का यह प्रयास सराहा जाना चाहिए। संग्रह की कुछ कविताएँ अपनी छंद-लय के कारण ध्यान आकर्षित करती हैं-पैंतीसवें स्वतंत्रता दिवस पर तथा आत्मबल जैसी कुछ और कविताएँ संग्रह में होतीं, तो यह कहा जा सकता था कि उमेश एक नई छंद-लय को साध रहे हैं।
इस संग्रह की कविताओं में एक तत्त्व समान रूप से लगभग सभी कविताओं में रेखांकित किया जा सकता है-वह है आस्था। यह आस्था प्यार में भी है, देश में भी और जीवन मूल्यों में भी। विद्रूप यथार्थ को चित्रित करते हुए भी यह आस्था अक्षुण्य रहती है। व्यवस्था की खामियों को रेखांकित करते हुए उमेश निराश नहीं होते, यह कवि और व्यक्ति के रूप में उनकी जिजीविषा को दरशाता है। समीक्षकों को इनमें कुछ मिले या न मिले, उन पाठकों को ये कविताएँ राहत जरूर देंगी, जो यह मान चुके हैं कि इस देश का अधिकारी वर्ग संवेदनशील हो चुका है। काव्य-संग्रह के लिए उमेश जी को बधाई और यह आशा भी कि वे आलोचकों की परवाह किए बिना लिखते रहेंगे। हाँ, अगले संग्रह में उनसे शिल्प और विन्यास, दोनों स्तरों पर कुछ अधिक अपेक्षाएँ जरूर रहेंगी।
भवानी भाई के शब्दों में-कविता भी किसिम-किसिम की आ रही है। अधिकांश बड़ी कविता (जो बड़े कवियों द्वारा बड़े आलोचकों के लिए रची और उन्हें अर्पित की जा रही हैं) आज सामान्य पढ़े-लिखे पाठकों से दूर है। अब कविता का ‘सही उत्तराधिकारी पाठक और रसज्ञ’ किसे माना जाए, यह फिर एक नए शोध और बहस की माँग करनेवाला विषय है। क्या हो उस पाठक की न्यूनतम योग्यता ? किस पाठक को संबोधित कर कवि लिखे और किसे इस अधिकार से वंचित किया जाए ? उमेश कुमार सिंहचौहान ने जब अपने इस संग्रह पर कुछ लिखने का आग्रह किया तो मेरे कवि मन को अकसर उद्वेलित करनेवाले वे ढेरों प्रश्न जीवित हो उठे, जिन्हें पिछले कुछ सालों से मैंने प्रतीक्षा-सूची में डाल रखा था।
आज भी यह प्रश्न उतना ही गंभीर और सामयिक है कि समकालीन कविता की मुख्यधारा में किस प्रकार की कविता को शामिल किया जाए ? नई कविता के दौर में तो मुक्तिबोध भी कवि थे और नरेश मेहता भी। गिरिजा कुमार माथुर भी कवि थे और रघुवीर सहाय भी।
आज रागात्मकता से परिपूर्ण, सीधी-सच्ची कविताएँ लिखना और उन्हें बतौर कवि सामने लाना बड़े कलेजे का काम है। चूंकि यह काम उमेश ने किया है, इसलिए वे साधुवाद के पात्र हैं। इससे पहले उनके रुमानी गीतों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ था, पर उनकी कविताओं का यह पहला संग्रह है। इस संग्रह में ‘आलोचक’ शीर्षक कविता में उन्होंने उसी पीड़ा की ओर इशारा किया है जिसका संकेत मैं ऊपर कर चुका हूँ। यह कविता उन तमाम कवियों को राहत और शक्ति देगी, जिन पर आलोचक अपनी उपेक्षा का चाबुक चलाते रहते हैं।
इस संग्रह में कई प्रकार की कविताएं है। ‘नव-निर्माण’, ‘केंचुल’, जैसी विश्लेषणात्मक कविताएँ कवि के भीतरी संसार से हमारा परिचय कराती हैं तो गांधीजी के बंदर, इक्कीसवीं सदी का भारत, ‘गांधी जयंती’, ‘नगवा नाला’ तथा ‘युद्ध और बच्चे’ जैसी कविताएँ कवि के सामयिक सरोकारों और राजनीतिक विद्रूप के प्रति उद्वेलन को प्रामाणिकता से अभिव्यक्त करती है। संग्रह में कुछ क्षणिकाएँ भी प्रभावित करती है। उमेश का मूल स्वर रूमानी रहा है और इस संग्रह में भी ‘शाश्वत संबंध’ ‘सुधियों के बीज’ ‘याद है तुम्हें ?’ जैसी कविताएँ निष्कवच होते कवि के आत्मीय संसार से हमारी भेंट कराती हैं। यहाँ रूमानियत को लेकर कुंठा नहीं है। सहज और स्वस्थ अभिव्यक्ति का यह प्रयास सराहा जाना चाहिए। संग्रह की कुछ कविताएँ अपनी छंद-लय के कारण ध्यान आकर्षित करती हैं-पैंतीसवें स्वतंत्रता दिवस पर तथा आत्मबल जैसी कुछ और कविताएँ संग्रह में होतीं, तो यह कहा जा सकता था कि उमेश एक नई छंद-लय को साध रहे हैं।
इस संग्रह की कविताओं में एक तत्त्व समान रूप से लगभग सभी कविताओं में रेखांकित किया जा सकता है-वह है आस्था। यह आस्था प्यार में भी है, देश में भी और जीवन मूल्यों में भी। विद्रूप यथार्थ को चित्रित करते हुए भी यह आस्था अक्षुण्य रहती है। व्यवस्था की खामियों को रेखांकित करते हुए उमेश निराश नहीं होते, यह कवि और व्यक्ति के रूप में उनकी जिजीविषा को दरशाता है। समीक्षकों को इनमें कुछ मिले या न मिले, उन पाठकों को ये कविताएँ राहत जरूर देंगी, जो यह मान चुके हैं कि इस देश का अधिकारी वर्ग संवेदनशील हो चुका है। काव्य-संग्रह के लिए उमेश जी को बधाई और यह आशा भी कि वे आलोचकों की परवाह किए बिना लिखते रहेंगे। हाँ, अगले संग्रह में उनसे शिल्प और विन्यास, दोनों स्तरों पर कुछ अधिक अपेक्षाएँ जरूर रहेंगी।
-डॉ. जय नारायण
संपादक ‘कल के लिए’
अनुभूति, विकास भवन,
बहराइच-271801
संपादक ‘कल के लिए’
अनुभूति, विकास भवन,
बहराइच-271801
दाना चुगते मुरगे
कुछ मुरगे दाना चुगने निकले
सामने बिखरे दाने
बाँट लिये उन्होंने अपनी-अपनी सुविधानुसार
और चुगने लगे जी भरकर
जैसे उन्हें सर्वाधिकार मिल गया था
मनचाहे तरीके से दाने चुगने का
मुझे अपना देश याद आया।
थोड़ी देर में एक मुरगे को लगा
जो दाने वह चुग रहा है
वह शायद घटिया हैं
दूसरे दानों के मुकाबले
उसने शोर मचाया कि उसे भी
कुछ अच्छे दाने मिलने चाहिए
सबको चुपचाप अच्छे दाने मिलते रहें
इसलिए समझौता हुआ
उसे भी दे दिए गए कुछ अच्छे दाने चुगने के लिए
मुझे अपने देश की राजनीति याद आई।
चुगते-चुगते एक मुरगे ने
दूसरे मुरगे के सामने का दाना खा लिया
फिर क्या था
लड़ने लगे दोनों मुरगे
अपने-अपने क्षेत्राधिकार को लेकर
अंत में उनके मुखिया ने निष्कर्ष निकाला
गलती शायद दाने की ही थी
उसे नहीं पता था कि
किस मुरगे के सामने उसे होना चाहिए था
और फिर शांति से चुगने लगे मुरगे अपने-अपने दाने
मुझे याद आई साझा सरकारों की।
दाने कम होते देखकर
और दानों की मांग की मुरगों ने
पेट भरा था उनका
फिर भी दानों का लालच विवश किए था
यह जानकर कि शायद और दाने न मिल सकें
सब चुग लेना चाहते थे अधिकाधिक बचे खुचे दाने।
दानों की कमी संघर्ष का कारण बनने लगी
कुछ मुरगों के सामने बचे थे बस खराब ही दाने।
अच्छे दानों पर एकाधिकार जमाने के लिए
चोंचों से वार होने लगे
एक दूसरे के खून के प्यासे हो चले थे मुरगे
मुझे याद आई लखनऊ, पटना, दिल्ली की।
कुछ मुरगे होशियार निकले
दाने चुगने का मजा ले चुके थे वे
समझ चुके थे कि दाने तो फसल से ही मिलते हैं।
फिर फसल ही खाने का मजा क्यों न लिया जाए
ऐसे मुरगे खेतों की तरफ बढ़ चुके थे
फसलों को खाने में रम चुके थे।
उन्हें इसकी चिंता भी नहीं थी
कि अब उनके साथियों को दाने कैसे मिलेंगे
और अंततोगत्वा उन्हें भी फसलें कैसे मिलेंगी
फसलें खत्म होती जा रही थीं।
मुरगे फिर लड़ने के लिए तैयार हो रहे थे
मुझे अपने देश के भविष्य की चिंता हो रही थी।
सामने बिखरे दाने
बाँट लिये उन्होंने अपनी-अपनी सुविधानुसार
और चुगने लगे जी भरकर
जैसे उन्हें सर्वाधिकार मिल गया था
मनचाहे तरीके से दाने चुगने का
मुझे अपना देश याद आया।
थोड़ी देर में एक मुरगे को लगा
जो दाने वह चुग रहा है
वह शायद घटिया हैं
दूसरे दानों के मुकाबले
उसने शोर मचाया कि उसे भी
कुछ अच्छे दाने मिलने चाहिए
सबको चुपचाप अच्छे दाने मिलते रहें
इसलिए समझौता हुआ
उसे भी दे दिए गए कुछ अच्छे दाने चुगने के लिए
मुझे अपने देश की राजनीति याद आई।
चुगते-चुगते एक मुरगे ने
दूसरे मुरगे के सामने का दाना खा लिया
फिर क्या था
लड़ने लगे दोनों मुरगे
अपने-अपने क्षेत्राधिकार को लेकर
अंत में उनके मुखिया ने निष्कर्ष निकाला
गलती शायद दाने की ही थी
उसे नहीं पता था कि
किस मुरगे के सामने उसे होना चाहिए था
और फिर शांति से चुगने लगे मुरगे अपने-अपने दाने
मुझे याद आई साझा सरकारों की।
दाने कम होते देखकर
और दानों की मांग की मुरगों ने
पेट भरा था उनका
फिर भी दानों का लालच विवश किए था
यह जानकर कि शायद और दाने न मिल सकें
सब चुग लेना चाहते थे अधिकाधिक बचे खुचे दाने।
दानों की कमी संघर्ष का कारण बनने लगी
कुछ मुरगों के सामने बचे थे बस खराब ही दाने।
अच्छे दानों पर एकाधिकार जमाने के लिए
चोंचों से वार होने लगे
एक दूसरे के खून के प्यासे हो चले थे मुरगे
मुझे याद आई लखनऊ, पटना, दिल्ली की।
कुछ मुरगे होशियार निकले
दाने चुगने का मजा ले चुके थे वे
समझ चुके थे कि दाने तो फसल से ही मिलते हैं।
फिर फसल ही खाने का मजा क्यों न लिया जाए
ऐसे मुरगे खेतों की तरफ बढ़ चुके थे
फसलों को खाने में रम चुके थे।
उन्हें इसकी चिंता भी नहीं थी
कि अब उनके साथियों को दाने कैसे मिलेंगे
और अंततोगत्वा उन्हें भी फसलें कैसे मिलेंगी
फसलें खत्म होती जा रही थीं।
मुरगे फिर लड़ने के लिए तैयार हो रहे थे
मुझे अपने देश के भविष्य की चिंता हो रही थी।
(जनवरी, 2000)
युद्ध और बच्चे
एक माँ बुरका ओढ़े
अपने दुधमुँहें बच्चे को छाती से चिपकाए
बसरा से बाहर चली जा रही है
अनजान डगर पर
किसी इनसानी बस्ती की तलाश में
अपने अधटूटे घर को पलट-पलटकर निहारती
अपने बचपन व जवानी से बावस्ता गलियों को
आँसुओं से भिगोंकर तर-बतर करती।
बच्चा गोद से टुकुर-टुकुर आसमान की ओर ताकता है
जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो
ऊपर उड़ते बमवर्षक विमानों की गड़गड़ाहट
चारों तरफ फटती मिजाइलों के धमाकों-
फौजियों की बंदूकों की तड़तड़ाहट-
इन सबसे उसका क्या रिश्ता है
वह नहीं जानता कि उसका बाप
‘अल्लाहो अकबर’ के नारे लगाता कहाँ गुम हो गया है
बच्चा नहीं जानता कि क्यों जल रहे हैं-
चारों तरफ कीमती तेल के कुएँ
और लोग क्यों बेहाल हैं भूखे-प्यासे
बच्चा अपनी माँ की बदहवासी जरूर पहचानता है
और जानता है कि
उससे बिछुड़कर जी नहीं सकता वह
धूल और धुएँ के गुबार में कहीं भी।
उधर कश्मीर में मार दिए गए पंडितों के परिवार का
जीवित बच गया छोटा बच्चा भी
नहीं जानता कि ‘हे राम’ कहकर कराहते
गोलियों से छलनी उसके माँ-बाप कहाँ चले गए हैं
वह नहीं जानता कि उस दिन गाँव में आए
बंदूकधारियों के चेहरों पर
क्यों फैली थी वहशियत
और क्या हासिल करना चाहते थे
वे तड़ातड़ गोलियाँ बरसाकर ?
वहाँ फ्लोरिडा में माँ की गोद में दुबककर बैठा
मासूम बच्चा
अपने फौजी बाप को एयरबेस पर
अलविदा कहकर लौटा है
वह भी नहीं जानता कि क्यों और कहाँ
लड़ने जा रहा है उसका बाप
और क्यों दिखते हैं टेलीविजन पर
बख्तरबंद टैकों में बैठे अमेरिकी जवान
रेतीले रास्तों में भटकते
‘इन द नेम ऑफ गॉड’
आग का दरिया बहाते
नखलिस्तानों पर निशाना साधते।
दुनिया का कोई भी बच्चा
नहीं जानता कि लोग क्यों करते हैं युद्ध ?
जबकि इस दुनिया में
कल बड़ों को नहीं, इन्हीं बच्चों को जीना है।
युद्ध होता है तो
बच्चे ही अनाथ होते हैं
और आणविक युद्ध का प्रभाव तो
गर्भस्थ बच्चे तक झेलते हैं।
बच्चे यह नहीं जानते कि
क्यों शामिल किया जाता है उन्हें युद्ध में
किंतु वे ही असली भागीदार बनते हैं
युद्ध के परिणामों के।
काश ! दुनिया की हर कौम
युद्धों को इन तमाम बच्चों के हवाले कर देती
और चारों ओर फैले रिश्तों के
बारुदी कसैलेपन को
मुसकराहटों की बेशुमार खुशियों में
हमेशा-हमेशा के लिए भुला देती।
अपने दुधमुँहें बच्चे को छाती से चिपकाए
बसरा से बाहर चली जा रही है
अनजान डगर पर
किसी इनसानी बस्ती की तलाश में
अपने अधटूटे घर को पलट-पलटकर निहारती
अपने बचपन व जवानी से बावस्ता गलियों को
आँसुओं से भिगोंकर तर-बतर करती।
बच्चा गोद से टुकुर-टुकुर आसमान की ओर ताकता है
जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो
ऊपर उड़ते बमवर्षक विमानों की गड़गड़ाहट
चारों तरफ फटती मिजाइलों के धमाकों-
फौजियों की बंदूकों की तड़तड़ाहट-
इन सबसे उसका क्या रिश्ता है
वह नहीं जानता कि उसका बाप
‘अल्लाहो अकबर’ के नारे लगाता कहाँ गुम हो गया है
बच्चा नहीं जानता कि क्यों जल रहे हैं-
चारों तरफ कीमती तेल के कुएँ
और लोग क्यों बेहाल हैं भूखे-प्यासे
बच्चा अपनी माँ की बदहवासी जरूर पहचानता है
और जानता है कि
उससे बिछुड़कर जी नहीं सकता वह
धूल और धुएँ के गुबार में कहीं भी।
उधर कश्मीर में मार दिए गए पंडितों के परिवार का
जीवित बच गया छोटा बच्चा भी
नहीं जानता कि ‘हे राम’ कहकर कराहते
गोलियों से छलनी उसके माँ-बाप कहाँ चले गए हैं
वह नहीं जानता कि उस दिन गाँव में आए
बंदूकधारियों के चेहरों पर
क्यों फैली थी वहशियत
और क्या हासिल करना चाहते थे
वे तड़ातड़ गोलियाँ बरसाकर ?
वहाँ फ्लोरिडा में माँ की गोद में दुबककर बैठा
मासूम बच्चा
अपने फौजी बाप को एयरबेस पर
अलविदा कहकर लौटा है
वह भी नहीं जानता कि क्यों और कहाँ
लड़ने जा रहा है उसका बाप
और क्यों दिखते हैं टेलीविजन पर
बख्तरबंद टैकों में बैठे अमेरिकी जवान
रेतीले रास्तों में भटकते
‘इन द नेम ऑफ गॉड’
आग का दरिया बहाते
नखलिस्तानों पर निशाना साधते।
दुनिया का कोई भी बच्चा
नहीं जानता कि लोग क्यों करते हैं युद्ध ?
जबकि इस दुनिया में
कल बड़ों को नहीं, इन्हीं बच्चों को जीना है।
युद्ध होता है तो
बच्चे ही अनाथ होते हैं
और आणविक युद्ध का प्रभाव तो
गर्भस्थ बच्चे तक झेलते हैं।
बच्चे यह नहीं जानते कि
क्यों शामिल किया जाता है उन्हें युद्ध में
किंतु वे ही असली भागीदार बनते हैं
युद्ध के परिणामों के।
काश ! दुनिया की हर कौम
युद्धों को इन तमाम बच्चों के हवाले कर देती
और चारों ओर फैले रिश्तों के
बारुदी कसैलेपन को
मुसकराहटों की बेशुमार खुशियों में
हमेशा-हमेशा के लिए भुला देती।
( अप्रैल 2003)
बौनों के देश में
बौने कद के लोगों में
एक अकेला था वह
लंबा सा इनसान
दूर देश से आया था।
हुए इकट्ठे सारे बौने
और तय किया
काटो इसके पैर
कि छोटा हो बेचारा
गए पास राजा के बोले
इसके पैर बहुत लंबे हैं
चाल बहुत ही तेज
कि छीने राज्य तुम्हारा।
राजा बोला बहुत सही है
बड़े पते की बात कही है
मैं हूँ राजा इन बौनों का
पैर काटकर इस लंबे के बौना कर दो
और नहीं तो इसे देश से बाहर कर दो।
फिर क्या था
आरियाँ निकालीं
पकड़ीं टाँगें परदेसी की
परदेसी भी बड़ा गजब का
झटक रहा था, पटक रहा था
सहज नहीं था पैर काटना
आरी में भी धार नहीं थी।
कट न सके जब पैर तो सोचा
देश निकालो
घेरो इसको सभी तरफ से
लेकिन कुछ ऐसी भी विधि थी
घेर न पाए।
लिये खरोंचें पूरे तन पर
वह लंबा इनसान
न्याय की प्रत्याशा में
यहाँ-वहाँ तक रहा दौड़ता
लंबे छल के उन बौनों से
बच जाए बस इस आशा में
शहर-बदर की अभिलाषा में।
एक अकेला था वह
लंबा सा इनसान
दूर देश से आया था।
हुए इकट्ठे सारे बौने
और तय किया
काटो इसके पैर
कि छोटा हो बेचारा
गए पास राजा के बोले
इसके पैर बहुत लंबे हैं
चाल बहुत ही तेज
कि छीने राज्य तुम्हारा।
राजा बोला बहुत सही है
बड़े पते की बात कही है
मैं हूँ राजा इन बौनों का
पैर काटकर इस लंबे के बौना कर दो
और नहीं तो इसे देश से बाहर कर दो।
फिर क्या था
आरियाँ निकालीं
पकड़ीं टाँगें परदेसी की
परदेसी भी बड़ा गजब का
झटक रहा था, पटक रहा था
सहज नहीं था पैर काटना
आरी में भी धार नहीं थी।
कट न सके जब पैर तो सोचा
देश निकालो
घेरो इसको सभी तरफ से
लेकिन कुछ ऐसी भी विधि थी
घेर न पाए।
लिये खरोंचें पूरे तन पर
वह लंबा इनसान
न्याय की प्रत्याशा में
यहाँ-वहाँ तक रहा दौड़ता
लंबे छल के उन बौनों से
बच जाए बस इस आशा में
शहर-बदर की अभिलाषा में।
(अक्तूबर 1999)
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